महिलाएं एवं मानवाधिकारः संवैधानिक एवं कानूनी प्रावधान

 

रमेश प्रसाद द्विवेदी

अंशकालीन प्राध्यापक महिला अध्ययन व विकास केन्द्र एवंलोक प्रशासन व स्थानीय स्वराज्य शासन विभाग राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महराज विश्वविद्यालय नागपुर

 

 

सारांशः

वर्तमान समाज अर्थवाद का दास सा बनता जा रहा है। जहां सम्पत्ति संग्रह की आनियमियता से अधिक महत्व दिया जाता है। पूंजीवाद से सत्तावाद, तथा सत्तावाद, सम्मपत्ति, विलासितावाद, भोगवाद की ओर बढ़ रहा है। वहां पर आदर्शात्मक मूल्यों का इस वर्तमान समाज में कोई महत्व नहीं है। महिलाओं के अधिकारों के हनन के विविध तरीके है, जिसमे महिलाओं के साथ ही अबोध बालिकाएं भी सदियों से पुरूषों द्वारा अधिकारों का हनन की शिकार रही है और आज भी है.

 

प्रस्तावनाः

यत्र नार्यस्तु पुज्यंते रमन्ते तत्र देवताः’’अर्थात जहां नारी की पूजा होती हैं वहां देवता निवास करते हैं। नारी एक वह पहलू हैं जिसके बिना किसी समाज की रचना संभव नही हैं। समाज में नारी एक उत्पादक की भूमिका निभाती हैं। नारी के बिना एक नये जीव की कल्पना भी नही कर सकते अर्थात नारी एक सर्जन हैं, रचनाकार हैं। यह कुल जनसंख्या का लगभग आधा भाग होती हैं फिर भी इस पित्रसत्तात्मक समाज में उसे हीन दृष्टि से देखा जाता हैं। पुत्र जन्म पर हर्ष तथा पुत्री जन्म पर संवेदना व्यक्त की जाती हैं। भारतीय समाज में आज भी पुत्रों को पुत्रियों से अधिक महत्व दिया जाता हैं। कुछ क्षेत्रों में जहां यह बदलाव सम्मानजनक एवं सकारात्मक हैं, वहां वही अधिकांश जगहों पर ये बदलाव महिलाओं के प्रतिकूल साबित हो रहे हैं। आज महिलाओं के पिछडेपन के कई कारण हैं जिनमें से एक बडा कारण उनका अशिक्षित होना हैं। समाजशास्त्रियों ने कहा है कि ‘‘दस पुरूषों की तुलना में एक महिला को शिक्षित करना ज्यादा महत्वपूर्ण हैं,

 

भारत में पुरूष एवं महिला साक्षरता दर- 1951 से 2011

क्रमांक    वर्ष      पुरूष     महिलाएं   व्यक्ति   अंतर

1.                                     1951           27.2            8.9              18.3            18.3

2.                                     1961           40.4            15.4            28.3            25.0

3.                                     1971           46.0            22.0            34.4            24.0

4.                                     1981           56.4            29.8            43.6            26.6

5.                                     1991           64.1            39.3            52.2            24.8

6.                                     2001           75.3            53.7            64.8            21.6

7.                                     2011           82.1            65.5            74.0            16.7

 

इस तालिका से ज्ञात होता है कि आजादी से आज तक साक्षरता के संदर्भ में काफी बढ़ोत्तरी देखी जा रही है लेकिन पुरूषों की तुलना में आज भी 16.7 प्रतिशत कम है, जो उनके पिछडेपन, शोषण तथा उत्पीडन का मुख्य कारण हैं। हालांकि केन्द्र एवं राज्य सरकारो ने इस संबंध में कई प्रयास किए हैं किंतु इसमें वे पूर्णरूपेण सफल नही हो पाए हैं। जाहिर हैं योजनाओं की सफलता के लिए उसके लाभार्थियों का सहयोग भी उतना ही अहमियत रखता हैं जितनी कि अन्य बाते। महिलाएं पुरूषों से किसी भी तरह से कमजोर नही हैं परंतु इसका एक दूसरा पहलू भी हैं। गत वर्षो में महिलाओं के अधिकारों का जितना उलंघन हुआ हैं शायद पहले कभी नही हुआ।

 

समाज व राज्य की विभिन्न गतिविधियों में पर्याप्त सहभागिता के बावजूद इनके साथ अभद्र व्यवहार, घरेलू हिंसा, कार्यस्थल, सडको, सार्वजनिक यातायात एवं अन्य स्थलों पर होने वाली हिंसा में वृद्धि हुई हैं, इसमें शारीरिक, मानसिक एवं यौन शोषण भी शामिल हैं।

 

 

 

दैनिक समाचार पत्रों में दिन-ब-दिन की घटनाएं छपी होती है जो महिलाओं से संबंधित होती है जैसे- बलात्कार, दहेज के लिए बहू को जलाना, प्रताड़ित करना तथा बालिका का भ्रुणहत्या, अपहरण, अगवा करना आदि। यह सच हैं कि आज महिलाओं ने अपने आपको मुख्य धारा में शामिल कर लिया हैं परंतु उनके इस विकास में उनकी दृढ इच्छा शक्ति के साथ मीडिया और भारतीय फिल्मों का भी अत्यंत योगदान हैं जो मानसिकतौर पर नारी को निरंतर विकास की ओर गतिशील किया हैं। भारतीय संस्कृति में महिलाओं को समाज में सबसे ऊंचा दर्जा दिया गया हैं। वैदिक युग में पिता अपनी पुत्री के विवाह के समय उसे आशिर्वाद देता था कि वह सार्वजनिक कार्य और कलाओं में उत्कृष्टता प्राप्त करे। सभ्यता के अनेक महत्वपूर्ण पड़ाव महिलाओं की उसी ओजस्विता और रचनात्मकता पर आधारित रहे हैं। वस्तुतः भारत दुनिया के उन थोडे से देशों में से हैं जहां की संस्कृति और इतिहास में महिलाओं को सम्मानजनक स्थान प्राप्त हैं और जहां मनुष्य को मनुष्य बनाने में उनके योगदान को स्वीकार किया गया हैं किंतु विभिन्न कारणों से कालांतर में भारतीय समाज में महिलाओं की पारिवारिक सामाजिक स्थिति निरंतर कमजोर होती हैं और पुरूष समाज द्वारा आरोपित मर्यादा और अधीनता स्वीकार करने हेतु विवश कर दिया गया हैं।  मानवाधिकार एक ऐसा विषय है जो कि विश्व के सभी लोगों को मानव समुदाय का सदस्य होने के नाते अधिकार प्रदान करता है अर्थात मानवाधिकार के तहत सभी व्यक्तियों को बिना किसी विभेद के समान अधिकार प्राप्त होते है। परंतु इसी के समाने समाज के कुछ वर्गों जिनमें विशेषतः महिलाएं, बच्चे, अल्पसंख्यांक एवं शरणार्थी वर्ग को रखा जा सकता है लेकिन अध्ययन के दृष्टकोण से महिलाओं के संदर्भ में विवेचन करने का प्रयास किया गया है। महिलाएं जो कि समाज की जनसंख्या का लगभग आधा भाग है। महिलाओं की स्थिति एवं दर्जा भारत में ही नहीं विश्व के सभी देशों में प्राचीन काल से ही दयनीय रही है। महिलाओं के साथ हमेशा ही अत्याचार किय जाते रहे है। महिलाओं का अशिक्षित होना एवं आर्थिक स्तर पर भी विविध प्रयास किये जा रहे है, जिसके कारण परिणाम सकारात्मक देखे जा रहे है। आज विश्व में महिला साक्षरता का प्रतिशत दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।

 

सर्व विदति है कि किसी भी समाज के निर्माण एवं विकास में महिला और पुरूष दोंनों की परस्पर सहभागिता व साझेदारी अत्यंत आवश्यक है। महिला व पुरूष को समाज रूपी गाड़ी के दो पहिए के समान माना गया है। अतः समाज के विकास एवं निर्माण के लिए महिला एवं पुरूष की सहभागिता अनिवार्य होती है। विकास के साथ ही साथ नैसर्गिक सिंद्यांत की पालना एवं पर्यावरण संतुलन के लिए अति आवश्यक है। महिलाओं के अधिकार की कमी मानव सभ्यता के साथ होती गई और समय के साथ ही साथ महिलाओं के आर्थिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ापन रहा है। यह एक प्रमाणित तथ्य है कि दुनियां में सबसे अधिक अपराध और अत्याचार महिलाओं के खिलाफ ही होते रहे है। इस परिपे्रक्ष्य में महिलाएं और मानवाधिकार दोनों काफी महत्वपूर्ण  हो जाते है। विश्व के लगभग सभी देशों में महिलाओं के लिए विशेष अधिकार दिये गये है, ताकि वे सम्मानपूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सकें। मानवाधिकारों के नजरिये से महिलाओं को विशेष रूप से व्यवहार करने योग्य माना गया है। महिला आन्दोलन के इस दौर में एक ओर महिलाओं को अधिकाधिक अधिकार दिये जाने की कवायद चल रही है वहीं दूसरी ओर महिलाओं के बीच भी अपने अधिकारों के प्रति भी जागरूकता बढ़ी है। महिलाओं के मानवाधिकार का हनन मात्र अपराधी ही नहीं करते है अपितु पुलिस व सुरक्षा बल भी इस मामले में ज्यदा पीछे नहीं है। महिलाओं को आमतौर पर अपराध की दृष्टि से बेहद आसान लक्ष्य माना जाता है इसीलिए महिलाओं के विरूद्ध दुनिया भर में अपराध बढ़ रहे है। चाहे घर हो या बाहर, स्कूल हो या कार्यस्थल महिलाओं को हर जगह विविध प्रकार के अपराधों का सामना करना पड़ता है। महिलाओं को संरक्षण प्रदान करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी समय समय पर काफी प्रयास किये है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर की प्रस्तावना में कहा गया है कि ‘‘हम संयुक्त राष्ट्रों के लोग....मूलभूत मानवाधिकारों में, मानव व्यक्ति की गरिमा व मूल्यों में तथा महिला व पुरूषों के समान अधिकरों में आस्था व्यक्त करते है.....।’’  इस प्रकार कहा जा सकता है संयुक्त राष्ट्र चार्टर में महिलाओं की समानता के अधिकारों की घोषणा की गई है। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र संघ की ‘‘मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषण-पत्र’’ में भी महिलाओं को बिना भेदभाव के अधिकरों की प्राप्ति का अधिकारी माना गया है। 

 

मानवाधिकार का ऐतिहासिक प्ररिप्रेक्ष्य

19वी सदीं में बदलाव आना प्रारंभ हुआ जब नवजागरण काल में भारतीय फलक पर अनेक सुधारवादी व्यक्तित्व सक्रिय हुए। बंगाल में राजा राममोहन राय ने जहां सती प्रथा के खिलाफ मुहिम चलाई वही ईश्वरचंद्र विद्यासागर और गुजरात में दयानंद सरस्वती ने महिला  शिक्षा और विधवा विवाह जैसे मुद्दों को लेकर काम किया। महाराष्ट्र में सन् 1848 में सावित्री बाई फुले ने लडकियों हेतु प्रथम स्कूल पुणे में खोला। नारी उत्कर्ष की दिशा में यह एक विशिष्ट प्रयास था फलतः समूचे भारत की महिलाओं में एक नई चेतना जागृत होने लगी। 20 वी सदीं में इस प्रक्रिया को ठोस धरातल और भक्ति भारत में आजादी के बाद मिली। भारत के संविधान ने महिलाओं को समाज की एक महत्वपूर्ण इकाई माना और इन्हें नागरिकता, वयस्क मताधिकार और मूल अधिकारों के आधार पर पुरूषों के बराबर दर्जा तथा समान अधिकार प्रदान किए, किंतु वास्तविक शक्ति महिलाओं से अब भी दूर थी और है। संविधान के अनुच्छेद 39 में की गई व्यवस्था के अनुसार -राज्य अपनी नीति का विशिष्टता इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से पुरूष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्यात साधन प्राप्त करने का अधिकार है। अतः भारतीय सरकार ने वर्ष 2001 को राष्ट्रीय महिला सशक्तीकरण वर्ष के रूप में मनाने का फैसला किया।

 

सर्वप्रथम 1946 में महिलाओं की परिस्थिति पर आयोग की स्थापना की गई थी। महासभा ने 7 नवंबर 1967 को महिलाओं के विरूद्ध सभी प्रकार के भेदभाव की समाप्ति पर अभिसमय अंगीकार किया। 1981 एवं 1999 में अभियमय पर एैच्छिक नवाचार को अंगीकार किया जिससे लैंगीक भेदभाव, यौन शोषण एवं अन्य दुरूपयोग से पीडित महिलाओं को अक्षम बनाएगा। मानव अधिकारो की रक्षा के लिए एवं संयुक्त राष्ट्र घोषणा पत्र के उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए भारत में मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया हैं। भारत ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार सम्मेलनों मेें आर्थिक एवं सामाजिक परिषद एवं महासभा के अधिवेशनों में मानवाधिकार के मुद्दों पर सक्रिय रूप से भाग लिया हैं। मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 की धारा 30 में मानव अधिकारों के उल्लंघन संबंधी शीघ्र सुनवाई उपलब्ध कराने के लिए मानवाधिकार न्यायालय अधिसूचित करने की परिकल्पना की गई हैं। आन्ध्र प्रदेश, असम, सिक्किम, तमिलनाडु और उत्तरप्रदेश में इस प्रकार के न्यायालय स्थापित भी किए जा चुके हैं। यहां यह कहना उचित होगा कि जब से मानवाधिकार संरक्षण कानून बना हैं और राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन हुआ हैं, नारी की स्थिति समाज में और अधिक सुदृढ होने लगी हैं। अब महिला-उत्पीडन की घटनाओं में भी अपेक्षाकृत कमी आई हैं। हमारी न्यायिक व्यवस्था ने भी नारी विषयक मानवधिकारो की समुचित सुविधा की हैं। आज महिलाएं कर्मक्षेत्र में भी आगे आई हैं। वे विभिन्न सेवाओं में कदम रखने लगी हैं लेकिन जब कामकाजी महिलाओं के साथ यौन उत्पीडन की घटनाएं होने लगी तो न्यायपालिका ने उसमें हस्तक्षेप कर यौन उत्पीडन की घटनाओं पर अंकुश लगाना अपना दायित्व समझा। विशाका बनाम स्टेट आॅफ राजस्थान, ए. आई. आर. 1997 एस. सी. उमा का इस सम्बंध में महत्वपूर्ण मानना हैं। उल्लेखनीय हैं कि महिलाओं के प्रति निर्दयता को उच्चतम न्यायालय ने एक निरंतर अपराध माना हैं। पति द्वारा पत्नी को अपने घर से निकाल देने तथा उसे मायके में रहने के लिए विवश करने पर आपराधिक कृत्य का मामला दर्ज किया गया हैं। महिलाओं के सिविल एवं संवैधानिक अधिकारो पर विचार करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 15 में यह प्रावधान किया गया हैं कि धर्म, कुल, वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी नागरिक के साथ विभेद नही किया जायेगा। अनुच्छेद 16 लोक नियोजन में महिलाओं को भी समान अवसर प्रदान करता हैं। समान कार्य के लिए समान वेतन की व्यवस्था की गई हैं। महिलाओं को मात्र महिला होने के नाते समान कार्य के लिए पुरूष के समान वेतन देने से इंकार नही किया जा सकता हैं। उत्तराखंड महिला कल्याण परिषद बनाम स्टेट आॅफ उत्तर प्रदेश, ए. आई. आर. 1992 एस. सी. 1965 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा महिलाओं को समान कार्य के लिए पुरूष के समान वेतन एवं पदोन्नति के समान अवसर उपलब्ध कराने के दिशा निर्देश प्रदान किये गये हैं। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 18 महिलाओं को सम्पत्ति में मालिकाना हक प्रदान करती हैं। श्रम कानून महिलाओं के लिए संकटापन्न यंत्री तथा रात्रि में कार्य का निषेध करते हैं। मातृत्व लाभ अधिनियम कामकाजी महिलाओं को प्रसुति लाभ की सुविधाएं प्रदान करता हैं। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 125 में उपेक्षित महिलाओं के लिए भरण पोषण का प्रावधान किया गया हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर महिला विषयक मानवाधिकारों को विभिन्न विधियों एवं न्यायिक निर्णयों में पर्याप्त संरक्षण प्रदान किया गया हैं। बदलते परिवेश में संविधान में 12वे संशोधन द्वारा अनुच्छेद 51 के अंतर्गत नारी सम्मान को स्थान दिया गया और नारी सम्मान के विरूद्ध प्रथाओं का त्याग करने का आदर्श अंगीकृत किया गया हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तथा राष्ट्रीय महिला आयोग नारी सम्मान की रक्षा एवं सतत प्रयासरत हैं।

 

वर्तमान में भारतीय महिलाएं समाज व राज्य की विभिन्न गतिविधियों में पर्याप्त सहभागिता कर रही हैं परंतु इससे उनके प्रति घरेलू हिंसा के अलावा कार्यस्थल पर सडको एवं सार्वजनिक यातायात के माध्यमों में व समाज के अन्य स्थलों पर होने वाली हिंसा में भी वृद्धि हुई हैं। इसमें शारीरिक, मानसिक व यौन सभी प्रकार की हिंसा शामिल हैं। प्रताडना, छेडछाड, अपहरण, बलत्कार, भ्रुण हत्या (यौन उत्पीडन, दहेज मृत्यु, दहेज निषेद व अन्य) यह अन्याय पूरे राष्ट्रीय स्तर पर होते हैं पर इनमें उत्तर प्रदेश सबसे आगे हैं। मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा ने भेदभाव को न करके सिद्धांत की अतिपुष्टि की थी और घोषित किया था कि सभी मानव स्वतंत्र पैदा हुए हैं और गरिमा एवं अधिकारों में समान हैं तथा सभी व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के, जिसमें लिंग पर आधारित भेदभाव भी शमिल हैं। फिर भी महिलाओं के विरूद्ध अत्यधिक भेदभाव होता रहा हैं।

 

मानवाधिकार की संकल्पनाः

मानवाधिकार की संकल्पना उतनी ही पुरानी है जितनी कि प्राकृतिक विधि पर आधारित प्राकतिक अधिकारों का प्राचीन सिंद्यांत तथापि ‘‘मानव अधिकारों’’ की अवधारणा की नये रूपों में उत्पत्ति द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंर्तराष्ट्रीय चार्टरों एवं अभिसमयों से हुई। सर्व प्रथम, अमेरिकन तत्कालिक राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने 16 जनवरी 1941 में कांग्रेस को संबोधित अपने प्रसिद्ध संदेश में ‘‘मानव अधिकार’’ शब्द का प्रयोग किया था, जिसमें उन्होने 4 मूलभूत स्वतंत्रताओं पर आधारित विश्व की घोषणा की थी, इनको उन्होंने इस प्रकार सूचीबद्ध किया था- वाक स्वातंन्न्य, धर्म स्वतंन्न्य, गरीबी से मुक्ति और भय से स्वातंन्न्य, इन चारों स्वतंत्रता से देश में अनुक्रमण में राष्ट्रपति घोषणा की, ‘‘स्वातंन्न्य से हर जगह मानव अधिकारों की सर्वोच्चता अभिप्रेत है। हमारा समर्थन उन्ही को है, जो उन अधिकारों को पाने के लिए या बनाये रखने के लिए संर्घष करते है। ’’मानवाधिकारों के महत्वों को समझाते हुए सयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौम की घोषणा 10 दिसम्बर 1948 को सर्वसम्मति से की थी। जिसे मानवाधिकर दिवस के रूप में जाना जाता है।

 

मानवाधिकार का अर्थ:

मानवाधिकारों से तात्पर्य मानव के लिए मनुष्य को मानव होने के लिए आवश्यक अधिकारों से होता है अर्थात मानव अधिकारों से तात्पर्य मानव के उन न्यूनतम अधिकारों से है, जो प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यक रूप से प्राप्त होने चाहिए, क्योंकि वह मानव परिवार का सदस्य है। मानवाधिकार एवं मानव गरिमा की धारणा के मध्य घनिष्ठ संबंध है अर्थात वे अधिकार जो मानव गरिमा को बनाये रखने के लिए आवश्यक है, उन्हे मानव अधिकार कहा जाता है।  इसमे ंमनुष्य की जाति, लिंग, सामाजिक स्थिति, आर्थिक, राजनैतिक, राष्ट्रीयता एवं व्यवसाय के कारण किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता है। मानवाधिकारों के कारण ही किसी समाज में रहने वाले पुरूष व महिलाएं अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकते है तथा समाजिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं की भी पूर्ति कर सकते है।

 

मानवाधिकारों की प्रकृति:

मानव अधिकार ऐसे अधिकार होते है जिनका राज्यों द्वारा आदर किया जाना अनिवार्य होता है। साथ ही ये अधिकार ऐसे मापदंढ होते है जिसके माध्यम से राज्यों के कार्यों का मूल्यांकन किया जाना संभव हो पाता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मानव अधिकारों को उपयोग की प्रकृति के आधार पर नित्न प्रकार से विभाजित किया जा सकता हैः-

1.                 मानवाधिकारों के संरक्षण में राज्य का नकारात्मक रूपः ऐसे अधिकारों से है जिनके द्वारा राज्यों को कुछ करने से रोका जाता है। जिसके अंर्तगत किसी भी व्यक्ति को कानून के उलंघन के बिना बंदी नहीं बनाया जा सकता है। किसी भी व्यक्ति को अकारण ही अपने विचार व्यक्त करने से रोका नहीं जा सकता है। व्यक्ति को किसी भी धर्म संप्रदाय के अनुसार आचरण करने से नहीं रोका जा सकता है। यदि इन नकारात्मक अधिकारों की सीमाएं किसी भी देश की सामाजिक-आर्थिक एवं राजनैतिक दशाओं के आधार पर अलग-अलग होता है।

2.                 मानवाधिकारों को संरक्षण में राज्य का सकारात्मक रूप: मानव अधिकारों के सकारात्मक रूप से तात्पर्य ऐसे अधिकारो से है जिसके अंर्तगत राज्य द्वारा अपने नागरिकों के लिए कुछ सुविधाएं एवं स्वतंत्रता प्रदान करता है अर्थात अपने यहां इस प्रकार के दशाओं का निर्माण करेगा जिससे प्रत्येक स्वतंत्रता एवं गरिमा के साथ जीवन यापन कर सके। उदाहरणार्थ महिलाओं के लिए समानता एंव संपूर्ण विकास के अवसर प्रदान करना, सरकारों द्वारा गरीबों के खाने एवं रहने का प्रबंधन करना, किसानों के लिए छूट का प्रावधान आदि।

 

मानवाधिकार की विशेषताएं:

1.                 सार्वभौमिकता: मानव अधिकारों को सार्वभैमिक इसलिए कहा जाता हंै, क्योंकि यह अधिकार सभी व्यक्तियों, सभी समयों पर, तथा सभी स्थिति में प्राप्त होत है। इसी के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ चार्टर के अर्तगत कहा गया है कि मानव अधिकार ऐसे अधिकार होते है जो कि प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त होते है अर्थात यह अधिकार किसी एक विशेष एवं राजनैतिक स्थिति में प्रतिबंद्ध नही होते हैं।

2.                 सर्वोच्चताः मनव अधिकारों को सर्वोच्च इसलिए माना जाता है क्योंकि राज्य द्वारा जनहित स्तर पर इन अधिकारों का अतिक्रमण नही किया जा सकता है। विश्व के प्रत्येक देश में इन अधिकरों को संवैधानिक एवं कानूनी आधारों पर संरक्षण प्रदान किया जाना अनिवार्य होता है।

3.                 व्यविहारिकता: मानव अधिकारों की व्यवहारिकता से तात्पर्य है कि मानव अधिकार सभी व्यक्तियों के लिए होते है तथा उन्हे व्यवहारिक तभी माना जा सकता है कि जब वह समाज के प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम इतना अवसर एवं सुविधाएं प्रदान करे जिसमे वे अपना जीवन यापन कर सकें।  मानव अधिकार केवल कानून एवं नियमों तक सीमित न रहकर उन्हें व्यवहारिक रूप प्रदान करने के लिए प्रयास किया जाना ही मानव अधिकारों के वास्तविकता को प्रदान करता है।

4.                 क्रियान्वयन योग्य: मानव अधिकरों का तात्पर्य ऐसे अधिकारों से होता है जो कि वास्तविक रूप से क्रियान्वयन किये जाने योग्य होते है। अर्थात ऐसे अधिकारों को कोई महव नहीं होता है। जिन्हें क्रियान्वयन करना संभव नहीं होता लेकिन संरक्षण अभिकरणों द्वारा क्रियान्वयन किया जाना संभव होता हैं।

5.                 व्यक्तिगत: मानव अधिकरों की अवधारण की उत्पत्ति मानव के स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में जन्म लेने से संबंधित है, जिसके तहत माना जाता है कि व्यक्ति के पास सोचने एवं समझने की शक्ति होती है अर्थात वह बौद्धिक प्राणी है। इस बौद्धिकता के कारण व्यक्ति अपना स्वयं भला-बुरा सोचने एवं नैतिक स्वतंत्रता के रूप में उसे अपने कार्यों के निर्धारण की स्वतंत्रता होनी चाहिए।

 

मानव कर्तव्यों का अर्थ:

मानव कर्तव्य से आशय मानव को मानव होने के नाते नैतिक अधार पर समाज के अन्य व्यक्तियों एवं जीवों को जीने एवं विकास के लिए अवसर प्रदान कराने में सहयोग प्रदान करे। मानव कर्तव्य के तहत मनुष्य अन्य मनुष्यों को  भी अपने समान ही इस समाज का ही एक अंग मानते हुए उसके महत्व को स्वीकार करे और उसे भी वहीं अवसर व सुविधाएं प्राप्त करने के अवसर सुनिश्चित कराने में अपना सहयोग प्रदान करें, जिससे उसे समानता के अवसर प्राप्त होते है। अर्थात मानव कर्तव्य एकाधिकार के विपरीत अवधारणा है जिसमें मानव अपना ही वर्चस्व रखना चाहता है। मानव कर्तव्य पालन द्वारा न केवल स्वयं के अधिकारों की अपितु, अप्रत्यक्ष अन्य के अधिकारों की रक्षा करता है। गांधी जी के अनुसार अहिंसा, सत्याग्रह, रचनात्मक कार्यक्रम एवं सर्वधर्म समभाव से संचालित कर्तव्यों की पूर्ति कर वैयक्तिक एवं सामूहिक दोनों स्तरों पर ही स्वतंत्रता एवं बंधुत्व के अधिकारों को किया जा सकता है। मानव कर्तव्यों का सीधा संबंध मानवता से है। मानवता द्वारा ही मानव कर्तव्यों के पालन के लिए मनुष्य को प्रोत्साहित किया जा सकता है।

 

मानवाधिकार के वर्ग:

मानवाधिकार के अंर्तगत विविध प्रकार के प्राकृतिक, संवैधानिक और विधिक अधिकार आते है। इस संदर्भ में विद्वानों ने इन्हे अपने अपने तरीके से बांटने का प्रयास किये है। मानवाधिकारों को वर्गीकृत करने के दो प्रमुख आधार है- 1. जीवन के विविध क्षेत्र और  2.  अधिकारों को बनाये रखने वाले कानून। इस आधार पर मानवाधिकार के प्रमुख वर्ग इस प्रकार हैः-

1.                 प्रकृतिक अधिकार: ये अधिकार वे अधिकार होते है जो मानव को स्वभाव में ही निहित है। स्वप्रज्ञा का अधिकार, मानसिक स्तर का अधिकार, जीवन का आधार आदि इसी श्रेणी में आते है ये बेहद महत्वपूर्ण माने जाते है।

2.                 मौलिक अधिकार: मौलिक अधिकार वे अधिकार है जिने बिना मानव का विकास नहीं हो सकता है। जैसे जीवन का अधिकार मानव जीवन का मूलभूत अधिकार है। इन अधिकारों की रक्षा करना प्रत्येक समाज का मूल कर्तव्य है।

3.                 नैतिक अधिकार: यह सिंद्धांत निष्पक्षता एवं न्याय के सामान्य सिद्धांतो पर आधारित है। समाज में मानव इन अधिकारों को प्राप्त करने का आर्दश रखता है। सामाजिक व्यवस्था में ये अधिकार बहुत आवश्यक होते है।

4.                 कानूनी अधिकार:  इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के कानून के समक्ष समान समझा जाएगा एवं साथ ही कानूनों का समान संरक्षण भी दिया जाना चाहिए। ये समय समय पर परिवर्तित किये गये है।

5.                 नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार: ये वे अधिकार है जिन्हें राज्य द्वारा स्वीकार किया जाता है।

6.                 आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार:  भारतीय संविधान के भाग चार में नीति निदेशक तत्व मनुष्य के सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों की मांग करते है लेकिन यह निर्धारण करना कठिन होता है कि कौन सा अधिकार अधिक महत्वपूर्ण है और कौन सा कम।

 

मानवाधिकार एवं कर्तव्य:

आधुनिक युग संविधान एवं प्रजातंत्र का युग है। प्रत्येक प्रगतिशील एवं सभ्य राज्य अपने नागरिकों को अधिक से अधिक अधिकार प्रदान करने का प्रयास करता है, जिसका उपयोग नागरिकों को वैधानिक सीमाओं में रहकर करना होता है। अधिकारों का दस्तावेज राज्य की प्रकृति का निर्णय करता है और राज्य व नागरिकों के संबंधों का समुचित निरूपण करता है। अधिकारों द्वारा प्रदत्त सुअवसरों के अभाव में उत्तम जीवन की कल्पना करना कठिन है। जब कभी हम मनुष्य के अधिकारों अथवा मानव अधिकरों की बात करते है, तो उन में मान्यता अर्तनिहित होती है, कि अधिकार समाज सृष्टि है, राज्य उन्हें प्रदान करता है और उनका आधार कल्याण होता है।  मानव अधिकार के संरक्षण के लिए लेन-देन के भावना के आधार पर कार्य किया जाता है जो कुुछ हम अपने लिए चाहते है दूसरों को भी करने दें। यह बात अधिकारों की धारणा में स्वतः निहित है, और इसे ही मानव कर्तव्य कह सकते है। सार रूप में अधिकार और कर्तव्य एक दूसरे से जुड़े है अर्थात एक सिक्के के दो पहलू हैं। यद्यपि उनके पीछे समाज की नैतिक शक्ति निहित होती है, तथापि यह राज्य सत्ता का कर्तव्य है कि वह अधिकारों का पालन करवाये केवल लिखित रूप से अधिकार प्रदान कर देना ही पर्याप्त नहीं है अर्थात अधिकारों की सार्थकता तब ही है जब राज्य उनके उपयोग के लिए समुचित वातावरण मानव को कानूनों के क्रियान्वयन के लिए नैतिक रूप तैयार करे।

 

मानवाधिकार आयोग:

व्यक्ति के मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ काफी दिनों से प्रयासरत है। संयुक्त राष्ट्र संघ का मजबूती से विश्वास है कि यदि दुनिया सामाजिक प्रगति, स्वतंत्रता, समानता, शांति आदि के साथ आगे बढ़े जो मानव की गरिमा और मानवाधिकारों की रक्षा आसानी से की जा सकती है। आज संयुक्त राष्ट्र संघ समकालीन विश्व में मानवाधिकारों के लिए संर्घषरत लोगों के लिए केन्द्रीय भूमिका अदा कर रहा है।  संयुक्त राष्ट्र संघ ने आपनी घोषणा में कहा था कि एक राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था की स्थापना की जानी चाहिए।

 

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोगों के बारे में सर्वप्रथम चर्चा 1846 में की आर्थिक सामाजिक परिषद में की गई।  इसके दो वर्ष पूर्व मानव अधिकार घोषणा पत्र में मानव अधिकारों के लिए विश्व स्तर पर एक सामान्य घोषण कर दी गई थी।  14 वर्ष बाद पुनः सवाल उठाया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने यह संभावना व्यक्त की कि राष्ट्रों के संगठन जो मानव अधिकारों के लिए गठित किये गये है, इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य करते है।  1960 एवं 1970 के दशक में इस संदर्भ में विस्तार से चर्चा  होने लगी। 1978 में संयुक्त राष्ट्र आयोग ने मानव अधिकार आयोग पर एक अर्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया और 1978 में जेनेवा में भी राष्ट्रीय आयोग गठन करने के लिए नीतिगत चर्चा की गई। 1980 के दशक में संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस क्षेत्र में गहरी रूचि दिखाई और महासचिव ने तमाम प्रतिवेदन सामान्य सभा को सौपे। इसी समय विश्व के कई देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ मानव अधिकार आयोग की सहायता से राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया।

 

भारत में मानवाधिकार आयोग:

भारत में मानवाधिकार आयोग का इतिहास लंबा है आधुनिक काल में भारत में मानवाधिकारों के लिए संघर्ष आजादी से काफी पूर्व ही आरंभ हो गया था। भारत को अंग्रेजो की दासता से मुक्ति मिली तो लोगों ने मानवाधिकारों के लिए कई मांगें सामने रखने लगें, उसके बाद सरकार ने आम जनता के मानवाधिकारों को संरक्षण प्रदान करने के लिए कानून में कई प्रावधान किये। धीरे-धीरे मानवाधिकारों की सिथति में सुधार होने लगी लेकिन 1975 के आसपास भारत में मानवाधिकारों को गहरा धक्का लगा। 1975 से 1977 के बीच आपातकालीन सिथति में मानवाधिकारों का बुरी तरह हनन हुआ। 14 वर्ष के करीब 1991 में कांग्रेस सरकार ने अपनी चुनावी घोषणा पत्र परिषद में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के गठन का वायदा मतदाताओं से किया। 1992 में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना  की सिफारिश की गई। इस सम्मेलन में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना के संदर्भ में विरोध के बावजूद बार बार यह मांग उठती रही कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना जल्द से जल्द की जाय।

 

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के कार्य:

1ण्      किसी भी सिथति में मानवाधिकारों के उलंघन होने पर कार्यवाई करना,

2ण्      लंबित मामलों पर आयोग द्वारा हस्ताक्षेप,

3ण्      भारत या राज्य के किसी भी जेल के कैदियों की हालचाल के लिए मुलाकात  एवं सुधारात्मक उपाय सुझाना,

4ण्      अनर्तराष्ट्रीय संधियों एवं उपायों के बारे में अध्ययन करना और उसे लागू करने की सिफारिश करना,

5ण्      मानवाधिकारों के बारे में शोध कार्य करना,

6ण्      मानवाधिकारों के बारे में लोगों को जानकारी देना ओर इसके विकास के बारे में जागरूक बनाना,

7ण्      इस दिशा में कार्यरत स्वयं सेवी संगठनों को प्रोत्साहित करना, आदि।

 

महिला मानवाधिकारों की सोचनीय स्थिति:

1.                 जन्म से पूर्व: जबरदस्ती गर्भधारण, गर्भपात, गर्भावस्था के दौरान मारपीट, मानसिक उत्पीड़न, कन्या भ्रूण हत्या,

2.                 शैशावावस्था के दौरान: शिशु कन्या हत्या, माता-पिता द्वारा खन पान मे भेदभाव, मारपीट, व्यक्तित्व विकास की ओर ध्यान न देना,

3.                 किशोरावस्था के दौरान: शीघ्र विवाह, परिवार व अपिरिचितों द्वारा यौन शोषण, बाल वेश्यावृति, मूलभूत सुविधाओं का अभाव,

4.                 युवावस्था के दौरान: कार्यस्थलों पर शोषण, यौन उत्पीड़न, अवैध व्यापार, बालात्कार, अपहरण, छेड़छाड़,

5.                 नारित्व के दौरान: विवाह हेतु दहेज की मांग, विवाह के बाद दहेज के लिए मारपीट व हत्या एवं आत्महत्या हेतु मजबूर करना, मानसिक एवं शारीरिक शोषण, घरेलू हिंसा आदि।

 

संविधान, कानून और महिलाएं:

भारतीय संस्कृति एवं जीवन पद्धिति में मानव अधिकारों की प्रतिष्ठा प्राचीन काल से ही संस्थापित है। महाभारत कालीन साहित्य एंव कौटिल्य आदि के समय में महिलाओं पर प्रहार करना, निरापराधियों को सताना, राज्य प्रतिनिधियों को अपमानित करना, वर्जित माना गया था। समाज एवं परिवार में मानव अधिकरों का आदर करना भारतीय परम्पराओं और आस्था का स्भाविक अंग माना गया है। ब्रिटिश गुलामी के दिनों में भारत के कई क्षेत्रों में विशेषकर ग्रामीण इलाकों में सामन्तवादी प्रवृति का बोलबाला था मालिक वर्ग गरीब मजदूरों से कम परिश्रमिक में अधिक कार्य करवाते थे। कभी कभी तो पशुओं से खराब बदतर व्यवहार किया जाता था। किन्तु स्वतंत्रता के बाद कुछ बदलाव आया। भारतीय संविधान के प्रावधानों ने अमानवीय स्थितियों को समाप्त कर सुव्यवस्थिति एवं सामाजिक सुरक्षा कायम करने का प्रयास किया। संविधान में मानव अधिकारों का उल्लेख किया गया है, जो इस प्रकार है:-

1ण्      अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत पुरूष और महिलाओं को आथर््िाक, राजनैतिक एंव सामाजिक रूप से समान अधिकार प्राप्त हैं।

2ण्      अनुच्छेद 15 के अन्तर्गत राज्य किसी नागरिक के विरूद्ध धर्म मूलवंश जाति लिगं जन्मस्थल के आधार पर कोई भेदभाव नही करेगा। प्रत्येक नागरिक का मूलभूत कत्र्तव है कि वह महिलाओं पर अत्यचार न होने दें। 

3ण्      अनुच्छेद 16 के अन्तर्गत पुरूषों एंव महिलाओं को बिना भेदभाव के सार्वजनिक नियुक्तियों तथा रोजगार के सम्बध में समान अवसर का अधिकार है। 

4ण्      अनुच्छेद-23 के अनुसार नारी के देह व्यापार से उसकी रक्षा की जाये। इस दृष्टि से संप्रेशन अॅाफ इम्मोरल ट्रैफिक इन विमेन एण्ड गल्र्स एक्ट 1956 पारित किया गया।

5ण्      अनुच्छेद 39 में पुरूष और स्त्री को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त कराने का अधिकार है।

6ण्      अनुच्छेद 42 में प्रसूति सहायता का उपबन्ध एवं

7ण्      अनुच्छेद-51 इसके अन्र्तगत उन सभी बातों का परित्याग करना जो नारी सम्मान के विरूद्ध है।

8ण्      अनुच्छेद 243 डी में पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के एक तिहाई स्थान आरक्षण का प्रावधान एवं संविधान की धारा 243 डी में संशोधन के बाद पंचायतों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत के बजाय 50 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया है।

 

महिलाओं के लिए नियम व अधिनियम:

भारतीय संविधान एवं विभिन्न दंड सहिताओं में भी कई ऐसे नियम, विनियम एवं अधिनियम आदि बनाएं गए है जिसकी सहायता से महिलाओं के हितों की रक्षा की जा सकती है। इसके अलावा अंग्रजों के शासनकाल में भी कुछ महिलाओं से संबंधित अधिनियम बनाये गए जिसकी बजह से महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार देखने को मिले है। जैसे- सती प्रथा उल्मूलन अधिनियम, विधवा पुर्नविवाह, सिविल मैरिज अधिनियम, बाल विवाह अवरोधक अधिनियम आदि। महिलाओं से संबंधित कुछ प्रमुख अधिनियम निम्नलिखित हैः-

1.                 भारतीय दंड सहिता, 1860:  इसमें महिलाओं पर होने वाले अत्याचार एवं निर्दयता के विरूद्ध सजा देने की व्यापक रूप से व्यव्स्था की गई है।

2.                 दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961: 1961 में तात्कालिक प्रधानमंत्री पंण्डित जावाहरलाल नेहरू ने दहेज को एक समस्या एवं मानव मात्र पर एक कलंक एवं कुप्रथा मानते हुए इस कानून को पारित करवाया था। इसके माध्यम से दहेज जैसी गंभीर समस्या पर अंकुश लगाने की कोशिश की गई।

3.                 हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956: यह अधिनियम निर्देशित करता है कि आज एक लड़की को भी अपने माता-पिता की सम्पत्ति में लड़के की भांति अधिकार प्राप्त है। जितना कि पुत्र यानि कि जहां तक पिता की सम्पत्ति का सवाल है लड़का एवं लड़की दोनों ही बराबर के उत्तराधिकारी है। लेकिन जहां तक पैत्रिक सम्पत्ति रूप से प्राप्त सम्पत्ति पर सवाल है आज भी महिला की स्थिति पुरूष जैसी नहीं है।

4.                 मुसलमान उत्तराधिकार संबंधी विधि: इनमें कुरान सरीफ की आयातों के अनुसार सदा से चला आ रहा है एवं महिलाओं के संदर्भ में कानून थोड़ा कठोर है हलांकि इस कानून में स्वयं अर्जित एवं पैत्रिक सम्पत्ति में कोई भेदभाव नहीं है। 

5.                 दण्ड प्रक्रिया 1973: इस प्रक्रिया में किसी भी महिला की तलाशी या अन्य संबंधित जांच के लिए महिला या महिला पुलिस के माध्यम से करना अनिवार्य होगा।

6.                 हिन्दू विवाह अधिनियम 1956: इस अधिनियम में पति-पत्नी के वैवाहिक जीवन जैस शादी, व्याह, तलाक एवं सजा आदि के बारे में विस्तार से विवेचन किया गया है।

7.                 मुस्लिम विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1939ः इस अधिनियम से पूर्व मुस्लिम महिलाओं की स्थिति अति दयनीय थी लेकिन इस अधिनियम के बनने के बाद पत्नी को भी तलाक देने के कुछ अधिकार प्रदान कराये गये।

8.                 हिन्दू अवयस्कता एवं संरक्षण अधिनियम, 1956: पति-पत्नी के बीच विवाह विच्छेद की स्थिति में अथवा अन्य परिस्थिति के कारण अगर पति-पत्नी अलग रहते है जो नुकसान उन्हें ही भुगतना पड़ता है, इससे भी ज्यादा दयनीय स्थिति उन बच्चों की हो जाती है जिनके माता-पिता अलग रहते हो, क्योंकि दोनों के बीच झगड़ा इस बात का रहता है कि अवयस्क बच्चे किसके पास रहें।

9.                 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1982: साक्ष्य का आसाधारण अधिनियम यह है कि सबूत का भार उस व्यक्ति पर होगा जिसके द्वारा आक्षेप लगाया गया हो और ऐसी ही स्थिति में महिलाओं पर होने वाला अत्याचारों के मामलों में भी थी।

10.              बाल विवाह अवरोध अधिनियम, 1929: 21वीं शदी में भी भारत के कुछ ग्रामीण एवं कुछ शहरी इलाकों में छोटे-छोट बच्चों को मंडप में बिठाकर उनकी शादियां रचाई जा रही है, इस अधिनियम में शादी की आयु का निर्धारण एवं नियम का उलंघन करने पर सजा, जुर्माना आदि का प्रावधान किया गया है।

11.              सती निवारक अधिनियम, 1987 व राजस्थान सती निवारक अधिनियम, 1987: इस इधिनियम द्वारा सती प्रथा एवं उसकों महिमामण्डित करने से रोकने के लिए सख्त कदम उठाये गये।

12.              अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम, 1956, संशोधित 1978 1986: इस अधिनियम के अनुसार महिलाओं के प्रति यौन-शोषण करने को संज्ञेय अपराध माना गया है।

13.              ‘‘सप्रेशन आॅफ इम्मोरल ट्रैफिक इन वूमेन एंड गर्ल एक्ट’’ 1950 संशोधित 1978 व द इम्मोरल ट्रैफिक प्रीवेन्शन एक्ट 1986:  अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम, 1956, से मिलता जुलता है।

14.              गर्भावस्था समापन चिकित्सा अधिनियम, 1971: प्रारंभ में हमारे देश में गर्भपात करना एवं करवाना दोनों ही भारतीय दंड सहिता-1860 के अनुच्छेद 312-316 के अनुसार अपराध थे। यह अधिनियम महिलाओं के स्वस्थ्य को देखते हुए बनाया गया है।

15.              चलचित्र अधिनियम, 1952: फिल्मों का समाज में गहरा असर पड़ता है इसलिए सेन्सर बोर्ड की जिम्मेदारी है कि वह ऐसी फिल्मों पर रोक लगाएगा जिससे महिलाओं को अश्लील रूप में दिखाया गया हो तथा महिलाओं की मर्यादा भंग हो।

16.              स्त्री अशिष्ट प्रतिबंध अधिनियम, 1986: इस अधिनियम के माध्यम से स्त्री के शरीर के अश्लील चित्रण पर पूर्णतया प्रतिबंध लगा दिया गया है। इसमें कहा गया है कि किसी भी महिला को इस प्रकार चित्रित नहीं किया जा सकता है जिससे उसकी सार्वजनिक नैतिकता को आघात पहुंचे या उसका मान घटे। इससे संबंधित छेड़खानी निरोधक कानून, 1978, सिनेमेटोग्राफी अधिनियम, 1952, इंसिडेन्ट रिप्रेजेन्टेशन आॅफ वूमेन प्रोहीबिशन एक्ट, 1986 आदि है।

17.              विशेष विवाह अधिनियम, 1954: इस अधिनियम के माध्यम से महिलाओं को वैवाहिक स्वतंत्रता के साथ-साथ धार्मिक स्वतंत्रता भी प्रदान किया गया है। इस अधिनियम के माध्यम से कोई भी महिला अपना धर्म परिवर्तन किये वगैर किसी अन्य धर्म को मानने वाले व्यक्ति से विवाह कर सकती है।

18.              कारखाना अधिनियम, 1948, संशोधन-1976: इस अधिनियम में कहा गया है कि यदि किसी कारखाने या उद्योग-धंधे में महिलाओं की संख्या 30 से अधिक होगी तो प्रबंधन को वहां एक शिशु-गृह की व्यवस्था करनी होगी। ताकि काम के घंटों के दौरान महिलाएं अपने बच्चों को शिशु गृह में छोड़ सकें।

19.              अपराधिक कानून अधिनियम, 1961: इस अधिनियम के तहत महिलाओं ऐसे अधिकार एवं विशेष रियायते दी गई है कि महिला अपने मातृत्व की जिम्मेदारियों का निर्वहन कर सके। महिलाओं के शारीरिक, मानसिक, एंव भावनात्मक शोषण से बचाने और उनके हितों के लिए और भी कानून है जो इस प्रकार है- समान परिश्रमिक अधिनियम-1976, कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, अभद्र निरूपण पिशेध अधिनियम-1986, ठेकेदरी श्रम नियम एवं उन्मूलन अधिनियम, राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम-1990, कुटुंब न्यायालय अधिनियम-1985 आदि।

 

सर्वविदित है कि भारतीय संविधान में कहने के लिए तो महिलाओं को पुरूषों के बाराबर दर्जा प्राप्त है लेकिन वास्तविकात आज भी देखी जा रही है कि विवाह, तलाक, काम, संम्पत्ति में अधिकार, गुजारा भत्ता आदि ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां बराबरी के नाम पर महिलाओं के साथ भद्दा मजाक न किया गया हो।  भारतीय संविधान, राज्य व केन्द्र सरकार, पंचायती राज व्यवस्था आदि के माध्यम से महिलाओं पर हाने वालेअपराध व अत्याचार के निदान के लिए निरन्तर प्रयास किया जा रहा है लेकिन महाराष्ट्र राज्य में महिलाओं पर अत्याचार सुचारू रूप से फल-फूल रहा है। वर्ष 2009-10 में 16620 हजार महिलाओं ने पुलिस विभाग का सहारा लिया है। ग्रामीण समाज की तुलना में सुशिक्षित व शहरी भाग में अत्याचार का प्रमाण पाया गया। इस राज्य की विधि रिपोर्ट व प्रकाशित समाचार पत्रों के अध्ययन से ज्ञात हुआ कि महिलाओं पर दहेज की मांग को लेकर मराठवाड़ा क्षेत्र में मामले पाये गये है। राज्य सरकार द्वारा महिलाओं का घरेलू हिंसा नियंत्रण के लिए विविध स्तर पर जनजागरूकता कार्यक्रम कियान्वित किया जाता है। देश में दहेज लेने वालों पर कानूनी कार्यवाई का प्रावधान किया गया है।

 

महिलाओं के प्रति हिंसा विश्वव्यापी घटना बनी हुई हैं जिससे कोई भी समाज एवं समुदाय मुक्त नही हैं। महिलाओं के प्रति भेदभाव इसलिए विद्यमान हैं क्योंकि इसकी जडे सामाजिक प्रतिमानों एवं मूल्यों में जमी हुई हैं। वैसे तो महिलाओं के विरूद्ध हिंसा के कारणों को समाप्त किये बिना उसका पूर्ण निदान संभव नही पर यदि पाश्चात्य एवं विकसीत देशों पर दृष्टिपात करे तो एैसा लगता हैं कि इसका कारण मानविय संरचना व स्वभाव में अंतनिहित होने के कारण जड से इसका उन्मुलन सम्भव नही हैं। प्रत्येक स्थल व प्रत्येक प्रकार की महिला विरोधी हिंसा के लिए समाज और समाज और राज्य दोनों को ही अपना नैतिक एवं विधिक उत्तरदायित्व निभाना पडेगा। व्यवहारिक स्वरूप यही मांग करता हैं कि एक ऐसी सामाजिक पहल हों जिससे महिलाओं के प्रति पूरे समाज की सोच बदले।

 

भारत में महिला हिंसा के भयानक स्वरूप के विरूद्ध संघर्ष के लिए और जन जागृति पैदा करने के लिए एक व्यापक अभियान चलाया जाना चाहिए। भारत जैसे विकासशील देश में मानव अधिकार का मुद्दा एक एैसा मुद्दा हैं जिसके लिए दीर्घकालीन नीति तथा सरकार एवं गैर सरकारी संगठन से सहयोग की जरूरत हैं। समाचार पत्र समूह, आकाशवाणी तथा दूरदर्शन आदि मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता लाने की दिशा में प्रभावी एवं सक्रिय भूमिका निर्वाह कर सकते हैं हम सभी को गांधी जी के इस विचार को याद रखने की आवश्यकता है कि-स्वतंत्र भारत को एैसा होना चाहिए कि कोई महिला कश्मीर से कन्याकुमारी तक अकेली घूम ले और उसके साथ कोई अशोभनीय घटना न हों। और साथ ही महिलाओं को अपने जीवन का आधा अंग मानकर स्वीकार करना चाहिए। सैद्यांतिक रूप से महिलाओं के अधिकार में कहीं भी कमी नहीं है लेकिन व्यवहारिकता में कोसों दूर देखा जा रहा है।  समाज में मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए कतिपय अधिकारों की आवश्यकता होती हैं जिसके अभाव में उसके व्यक्तित्व का विकास समाज में असंभव है, इन्ही को मानव अधिकार कहा जाता हैं जो कि अन्य असंक्रमय होते है। अतः व्क्ति और मानवाधिकार को अंर्तराष्ट्रीय समुदाय का जो नियम बनता है, वह अंतराष्ट्रीय विघि होती है। अंर्तराष्ट्रीय समुदाय में राज्य के साथ साथ व्क्ति भी अंर्तराष्ट्रीय विधि का विषय हो गया है। जहां अरस्तु ने मनुष्य को एक सामाजिक प्रणी माना, वह आज के युग में भी लागू हैं परंतु अब कार्यवाही द्वारा मानव अधिकारों को अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वे राज्य कार्यवाही पर निर्बंधन आरोपित करते है। 

 

संदर्भ ग्रंथ

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3ण्      डाॅं. प्रज्ञा शर्मा: भारतीय समाज में नारी- पोइन्टर पब्लिशर्स, जयपुर, 2001

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5ण्      डाॅं. वीरेन्द्र सिंह यादव: नई सहस्त्राब्दी का महिला सशक्तीकरण-अवधारणा, चिन्तन एवं सरोकार भाग 1 एवं 2,  ओमेगा पब्लिकेशन, दिल्ली, 2010

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9ण्      कम्पेंडियम जनरल नाॅलेजः 2011

10ण्     प्रो. मधुसूदन त्रिपाठी: भारत में मानवाधिकार, ओमेगा पब्लिकेशन, नई दिल्ली, 2008

11ण्     आशा कौशिक: मानवाधिकार और राज्यः बदलते संदर्भ, उभरते आयाम- पोइन्टर पब्लिर्शस, जयपुर 2004

12ण्     डाॅं. सुरेन्द्र कटारिया: भारतीय लोक प्रशासन- नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 2005

1.       Gonsalves Lina :  A Women and Human Right,  APH Publishing co., New Delhi,  2001

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Received on 20.01.2013

Revised on 26.02.2013

Accepted on 03.04.2013     

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Research J. Humanities and Social Sciences. 4(2): April-June, 2013, 231-237